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Chitrakoot News : चित्रकूट जिले का पाठा क्षेत्र आज भी बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर खड़ा है. प्रकृति पर इनकी निर्भरता देखते ही बनती है. सुबह चार बजे से ही ग्रामीण टोकरियां लेकर जंगल की ओर निकल पड़ते हैं.

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हाइलाइट्स
- तेंदू पत्ता तोड़ना आदिवासियों का सदियों पुराना काम है.
- मार्च-अप्रैल में महुआ, मई-जून में तेंदू पत्ता बीनते हैं.
- तेंदू पत्ते बेचकर आदिवासी परिवार अपना गुजारा करते हैं.
चित्रकूट. प्रकृति हमेशा से हमारी पालनहार रही है. चित्रकूट जिले का पाठा क्षेत्र आज भी बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर है. यहां न तो कोई फैक्ट्री है न ही कंपनियां, ऐसे में यहां के लोग प्रकृति से ही अपना पेट पालते हैं. प्रकृति पर इनकी निर्भरता देखते ही बनती है. हर साल गर्मी के सीजन में ये इलाका तेंदू पत्ते की तुड़ाई में जुट जाता है. सूरज निकलने से पहले सुबह चार बजे से ही दर्जनों ग्रामीण अपनी टोकरियां लेकर जंगल की ओर निकल पड़ते हैं. यहां के लोगों का काम सीजनल है. पहले ये लोग मार्च-अप्रैल में महुआ बीनते हैं, फिर मई-जून में तेंदू पत्ता तोड़ते हैं. जंगलों में पाए जाने वाले ये पत्ते और फल ही इनके जीवन का आधार हैं. इन पत्तों को वे लोग वन निगम और बाजारों में बेचकर उससे मिलने वाले पैसे से घर चलाते हैं.
किस काम का ये पत्ता
मानिकपुर पाठा क्षेत्र के रहने वाले राजन Local 18 से कहते हैं कि उनके लोग सुबह 4 बजे जंगल जाते हैं और 10 बजे तक लौट आते हैं. फिर पत्तों को सुखाते हैं और उसका बंडल बनाकर वन निगम या लोकल मंडी में बेचते हैं. इसी से घर चलता है. हर बंडल की कीमत 40 से 50 रुपये किलो मिलती है. एक दिन में परिवार मिलकर 8 से 10 किलो तक पत्ते तोड़ लेते हैं. ये पत्ते बाद में बीड़ी बनाने वाली कंपनियों को बेचे जाते हैं.
बच्चों से लेकर महिलाएं तक
मानिकपुर सरहट की बिट्टी कहती हैं कि इसलिए बच्चे, बूढ़े और महिलाएं सब जंगल पर निर्भर हैं. लेकिन पत्ते तोड़ना आसान काम नहीं है. गर्मी में जंगल जाना, पत्ते चुनना, धूप में सुखाना…सब बहुत मेहनत का काम है. लेकिन पेट की आग इसे आसान बना देती है. हम लोग इस सीजन का साल भर इंतजार करते है. ये तेंदू पत्ता हमारे लिए सोने से कम नहीं है.
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