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Khesari Dal : बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में खेसारी दाल उपजाई जाती है. 50 साल पहले कहा गया है कि इस दाल को खाने से लकवा की बीमारी का खतरा है. इसलिए सरकार ने 1961 में इस पर बैन लगा दिया था. लेकिन अब वैज्ञानिक…और पढ़ें

50 साल से बैन थी यह दाल, कहा जाता था हो जाएगा लकवा, लेकिन सब बेकार की बातें, वैज्ञानिकों ने खोल दी पोल

इस दाल को क्यों गया था बैन.

Khesari Dal : अगर आप उत्तर भारत के किसी गांव से हैं तो आपने अपने बुजुर्गों से जरूर कहानी सुनी होगी कि पहले खेसारी दाल उपजाई जाती थी. कहा जाता है कि जिस साल खेसारी की दाल गांव में ज्यादा होती थी, उस साल कई लोग लंगड़े हो जाते थे. इस कहानी में कितना दम है यह तो नहीं पता लेकिन कुछ ततकालीन अध्ययनों के बाद सरकार ने 1961 में खेसारी की दाल के खरीद-बिक्री पर रोक लगा दी. लेकिन करीब 50 साल बाद 2016 में इस बैन को खत्म कर दिया गया और कहा गया कि इससे कोई ज्यादा खतरा नहीं है. आखिर क्या है यह मामला और क्यों खेसारी दाल को लेकर इतना हाय-तौबा मचा हुआ है.

क्यों बैन किया गया था
भारत के कई राज्यों में खेसारी की दाल बहुतायात में उगाई जाती थी क्योंकि यह दाल विपरीत परिस्थिति में भी उग जाती है. इसके लिए पानी की जरूरत भी नहीं है. इस कारण लोग खेसारी की दाल ज्यादा खाते थे. बहुतायात में होने के कारण यह गरीबों की दाल मानी जाती है. इससे इसकी कीमत सस्ती भी होती थी. भारत के कई गांवों से रिपोर्ट आने के बाद 1961 में भारत सरकार ने 1961 में खेसारी दाल की ब्रिक्री और स्टोरेज पर रोक लगा दिया था. हालांकि इस बैन में मध्य प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल को शामिल नहीं किया गया था. 1964 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलुरु ने अपने अध्ययन में बताया कि दरअसल, खेसारी की दाल में बीटा न्यूक्लिक ऑक्जेलाय L-a ( ß-N-oxalyl-L-a) और बीटा डायमाइनोप्रोपायोनिक एसिड (ß-ODAP) पाया जाता है. ये दोनों केमिकल दिमाग में न्यूरोटॉक्सिन बनाने लगते हैं. इन दोनों केमिकल के कारण लेथेरिज्म की बीमारी होती है. इस बीमारी में मांसपेशियों में ताकत बहुत कम हो जाती है. इससे शरीर में कंपकपाहट होती है और चलने में दिक्कत होती है. इस कारण कुछ लोग लंगड़े हो जाते हैं. हालांकि खेसारी की दाल की उपज इन तीनों राज्यों में होती रही है. चूंकि यह दाल अरहर की दाल की तरह ही है इसलिए अरहर की दाल में इसकी मिलावट धड़ल्ले से होती है.

आखिर सच क्या है
अब इस पुराने अध्ययन को सिरे से खारिज कर दिया गया है. अध्ययन में हालांकि पहले ही कहा गया था कि अगर खेसारी की दाल को बहुत अधिक मात्रा में खाई जाए तभी कुछ नुकसान है. इसके लिए यह कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति रोजाना तीन महीनों तक लगातार अपनी एनर्जी का 40 प्रतिशत से ज्यादा इस दाल से पूरी करता है तभी न्यूरोटॉक्सिन कुछ असर दिखा पाएगा. इससे लेथेरिज्म की बीमारी होगी. संभवतः पहले लंगड़े होने का कारण शायद यही थी. कहा जाता है कि जब किसी साल बाढ़ या सुखाड़ के कारण फसलें नहीं होती थी तो लोग सिर्फ खेसारी की दाल खाकर ही रहते थे क्योंकि खेसारी की दाल सर्दी-गर्मी और बिना पानी में अच्छी फसल दे देती थी जिसे लोग स्टोर कर रख लेते थे. इसी कारण लोगों को नुकसान होता था लेकिन आज ऐसा नहीं है, लोगों की डाइट में हर चीज शामिल होने लगी है.

नई रिसर्च में क्या आया सामने
हाल ही में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट ऑफ द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के वैज्ञानिकों ने खेसारी दाल पर अध्ययन के बाद एक शॉर्ट फिल्म रिलीज की जिसका शीर्षक था-खेसारी: कल आज और कल. मशहूर न्यूरोलॉजिस्ट प्रोफेसर यू के मिश्रा ने बताया कि हमारी रिसर्च में खेसारी दाल और न्यूरोलॉजिकल बीमारी लकवा के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है. उन्होंने कहा कि इस मामले में हमें महान मेडिकल साइंसटिस्ट डॉ. शांतिलाल कोठार और प्रोफेसर एस. एन राव की बातें ध्यान रखनी चाहिए. बीएचयू की रिसर्च में बिहार, यूपी और मध्यप्रदेश के लगभग 9 हजार लोगों को शामिल किया गया और पाया गया कि इससे बीमारी का कोई सीधा संबंध नहीं है.

खेसारी की दाल के फायदे
रिसर्च में कहा गया है कि खेसारी की दाल में 31 प्रतिशत प्रोटीन, 41 प्रतिशत कार्बोहाइड्रैट, 17 प्रतिशत डायट्री फाइबर, 2 प्रतिशत फैट और 2 प्रतिशत अन्य चीजें हैं. सबसे अच्छी बात यह है कि खेसारी की दाल को पकाने में भी कम समय लगता है. इस कारण इंधन और समय की बचत होती है. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन के अध्ययन के मुताबिक खेसारी की दाल में हार्ट को फायदा पहुंचाने वाला तत्व भी पाया जाता है.

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