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डाकुओं के सफाये के बाद चंबल घाटी में आई खुशहाली

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डाकुओं के सफाए के बाद चंबल में लौटी खुशहाली, कोई लौटा घर तो किसी ने शुरू की फिर से खेती

डाकुओं के सफाये के बाद चंबल घाटी में आई खुशहाली

इटावा: कभी कुख्यात डाकुओं के आतंक से जूझती रही चंबल घाटी में अब खुशहाली का आलम कायम है, चंबल घाटी में डाकुओं के खात्मे के बाद विकास की नई राह पकड़ ली. कुख्यात डाकुओं के खात्मे के बाद स्थानीय लोगों में खुशी का एहसास बना हुआ है. डाकुओं के वक्त आए दिन हर ओर धाय धाय घाय की ही आवाजें सुनाई दिया करती थीं, लेकिन अब तो डाकू है और ना ही डाकुओं का आतंक है.

डाकुओं की वजह दूसरे राज्यों में बस गए थे स्थानीय लोग

एक समय चंबल घाटी में सैकड़ों की तादात में डाकुओं का आतंक इस कदर था कि हर और अपहरण और गोलियों की ही आवाजें बीहड़ में सुनाई दिया करती थी. डाकुओं के आतंक के चलते चंबल घाटी में वास करने वालों की दिनचर्या भी बुरी तरह से प्रभावित हुआ करती थी.

सैकड़ो की संख्या में स्थानीय गांव वाले अपने रोजमर्रा की जिंदगी को बसर करने के इरादे से देश के दूसरे राज्यों में जाकर के बस गए थे इस कारण उनके खेत खलियान उजाड़ हो चुके थे लेकिन अब उन्हीं खेतों में हरियाली ही हरियाली नजर आ रही है.

इनका था आतंक

चंबल घाटी में एक समय कुख्यात दस्यु सरगना राम आश्रय उर्फ फक्कड़,कुसमा नाइन, लालाराम सीमा परिहार, निर्भय गुर्जर, रज्जन गुर्जर, अरविंद गुर्जर,लवली पांडे,सलीम गुर्जर, जगजीवन परिहार आदि का आतंक चरम पर था.

जानकार बताते हैं कि उस समय जब कभी पुलिस की कार्रवाई डाकुओं के संरक्षकों के खिलाफ अमल में लाई गई तो बदले में डाकुओं ने बड़ी तादाद में स्थानीय लोगों को अपने कब्जे में लेकर के अपने संरक्षकों को पुलिस के चुंगल से मुक्त भी कराया.

अब है आतंक से पूरी तरह मुक्त

क्षेत्र के सरकारी स्कूल अब डाकुओं के आंतक से पूरी तरह से मुक्ति पा चुके है. इलाके में अब कई प्राथमिक स्कूल खुल चुके है. इसके साथ ही कई जूनियर हाईस्कूल भी खोले जा रहे है. जिनमें गांव के मासूम बच्चे पढ़ने के लिये आते है और पूरे समय रहकर करके शिक्षकों से सीख लेते हैं.  ललूपुरा गांव के बृजेश कुमार बताते है कि जगजीवन के मारे जाने के बाद पूरी तरह से सुकुन महसूस हो रहा है. उस समय गांव में कोई रिश्तेदार नही आता था. लोग अपने घरो के बजाय दूसरे घरो में रात बैठ करके काटा करते थे . उस समय डाकुओं का इतना आंतक था कि लोगों की नींद में उड़ गई थी. पहले किसान खेत पर जाकर रखवाली करने में भी डरते थे. आज वे अपनी फसलों की भी रखवाली आसानी से करते है.

स्कूल में पढ़ने वाले लड़के को आज न तो डाकुओं के बारे मे कोई जानकारी है और न ही उनके परिजन उनको डाकुओं के बारे मे कुछ भी बताना चाह रहे हैं. इसी कारण गांव में मासूम बच्चे पूरी तरह से डाकुओं से अनजान भी है और हमेशा अनजान ही रहना चाह रहे हैं. कक्षा पांच का छात्र हरिशचंद्र से बातचीत में एक बात साफ हुई कि उसके माता-पिता या फिर गांव वालो ने उसे कभी डाकुओ के बारे में नहीं बताया . इसी कारण उसे किसी भी डाकू के नाम का पता नहीं हैं.

डाकुओं के खात्मे के बाद घर लौटे लोग

चौरैला के हनुमंत सिंह करीब 20 साल पहले गुजरात चले गये थे. वहां पर पत्थर की घिसाई कर परिवार का भरण पोषण करते थे, लेकिन जगजीवन समेत सभी डाकुओं के मारे जाने के बाद अपने बीबी बच्चों के साथ गांव मे लौट आए है. हनुमंत सिंह अपने खेतों में सरसो एवं गेंहू की फसल दिखाते हुये बेहद खुश नजर आया. उसका कहना है कि जब डाकू थे तब ऐसी फसल नहीं लहलहाती थी, लेकिन आज यहां हालात बदल गये हैं. चौरैला गांव का राहुल सिंह ने बताया कि डाकुओं आतंक के कारण वह पढ़ने के लिए राजस्थान चला गया था. डाकुओं के मारे जाने के बाद अब अपने गांव लौट आया है.

चम्बल में विकास की नई नई इबारतें लिखी जा रही हैं

डाकुओं के आतंक के कारण उस समय चम्बल में कोई भी विकास योजना सही ढंग से संचालित नहीं हो सकी है, लेकिन आज डाकुओं के खात्मे के बाद चंबल बदलता हुआ दिखाई दे रहा है क्यों कि चम्बल में विकास की नई नई इबारतें लिखी जा रही हैं जिससे स्थानीय लोग बेहद खुश हैं.

पुलिस सेवा से मुक्त हो चुके पुलिस अधिकारी रामनाथ सिंह यादव बताते है कि डाकुओं के आतंक ने चंबल घाटी का काफी नुकसान किया है. हर ओर अपहरण डाकेजनी की घटनाओं ने लोगों ओर पुलिस के सामने नई नई मुबीबतें खड़ी की थीं.

आज चंबल में डाकुओं का ना तो आतंक है और ना ही कोई नामलेवा कोई बचा है, बदली हुई सूरत में चम्बल घाटी में हर ओर खुशहाली ही खुशहाली नजर आ रही है.

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डाकुओं के सफाए के बाद चंबल में लौटी खुशहाली, जानिए अब कैसी है लोगों की जिंदगी

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