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confluence of tastes: बलिया की यह देसी लिट्टी यानी ‘लिट्टी का बाप’ स्वाद, संस्कृति और परंपरा का अद्भुत संगम है. इसे बनाने में जहां मेहनत और धैर्य की आवश्यकता होती है, वहीं इसका स्वाद हर कौर में ग्रामीण जीवन की सादगी और अपनापन भर देता है. ‘लिट्टी का बाप’ जैसी परंपराएं यह याद दिलाती हैं कि असली स्वाद अब भी गांव की मिट्टी और देसी तरीके में बसता है.
बलिया. पूर्वांचल के लोगों की पहचान बन चुकी लिट्टी-चोखा को भला कौन नहीं जानता, लेकिन बलिया की धरती पर अब एक ऐसा व्यंजन चर्चा में है, जिसे लोग मज़ाकिया अंदाज में “लिट्टी का बाप” कह रहे हैं. यह देसी व्यंजन ‘लिट्टा’ के नाम से मशहूर हो रहा है. इसका आकार, स्वाद और बनाने की देसी तकनीक इतनी अनोखी है कि इसे देखकर कोई भी हैरान रह जाए. पारंपरिक गोबर के उपलों की आग में तैयार की जाने वाली यह विशाल लिट्टी न सिर्फ स्वाद में लाजवाब है, बल्कि गांव की संस्कृति और मेहनत का भी प्रतीक है. बलिया जनपद के चौरा निवासी पियूष उपाध्याय बताते हैं कि उन्होंने पहली बार इस लिट्टी को एक जन्मदिन पार्टी में देखा था। पास के गांव पिपरा में आयोजित इस पार्टी में तैयार की गई ‘लिट्टी का बाप’ सबके आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. लोग इसे देखकर अचंभित थे, क्योंकि यह सामान्य लिट्टी से कई गुना बड़ी थी. इस लिट्टी का आकार इतना विशाल होता है कि इसे देखने भर से ही लोगों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है.
देसी अंदाज में होती है तैयारी
यह पारंपरिक व्यंजन आज भी गांवों में पुराने देसी अंदाज में तैयार किया जाता है. सबसे पहले गाय के गोबर से बने उपलों (गोइठा) की अहरा यानी मजबूत आग तैयार की जाती है. इस विशेष लिट्टी को बनाने के लिए लगभग 10 किलो गेहूं का आटा गूंथा जाता है और उससे एक ही बड़ी लिट्टी तैयार की जाती है. इस लिट्टी को पकाने में कुशलता की जरूरत होती है, क्योंकि भारी आटे के गोले को आग में बार-बार उलट-पलट कर सेंका जाता है ताकि वह बाहर से कुरकुरी और अंदर से पूरी तरह पकी हो.
राख में पकती है ‘लिट्टी का बाप’
जब उपलों की आग शांत हो जाती है और राख बच जाती है, तब उस राख में इस लिट्टी को पूरी तरह ढक दिया जाता है. गर्म राख में धीरे-धीरे पकते हुए यह लिट्टी फुलने लगती है और जगह-जगह से हल्की-हल्की फट जाती है. यही संकेत होता है कि ‘लिट्टी का बाप’ तैयार है. इस पूरी प्रक्रिया में लगभग दो घंटे का समय लगता है, लेकिन इसका स्वाद उस मेहनत को पूरी तरह सार्थक कर देता है.
40 लोगों का पेट भरने वाला एक लिट्टा
‘लिट्टी का बाप’ केवल नाम से ही नहीं, बल्कि आकार में भी बड़ा है. एक लिट्टा इतना बड़ा होता है कि 40 से 45 लोग आराम से इसका आनंद ले सकते हैं. इसे आमतौर पर गरमा-गरम चोखे– यानी बैंगन, आलू और टमाटर के मिश्रण- या फिर तड़के वाली दाल के साथ परोसा जाता है. इसके स्वाद में देसीपन और मिट्टी की खुशबू का ऐसा संगम होता है कि जो भी एक बार खा ले, वह इसे लंबे समय तक भूल नहीं पाता.
संस्कृति, मेहनत और स्वाद का मेल
‘लिट्टी का बाप’ केवल एक व्यंजन नहीं बल्कि ग्रामीण जीवन की आत्मा से जुड़ा हुआ स्वाद है. इसे तैयार करने में गांव के लोग मिलजुलकर मेहनत करते हैं- कोई आटा गूंथता है, कोई उपले तैयार करता है और कोई आग संभालता है. इस तरह यह व्यंजन सामूहिक श्रम और उत्सव की भावना का प्रतीक बन जाता है. यह परंपरा उस दौर की याद दिलाती है जब आधुनिक उपकरण नहीं थे और लोग गोइठे की आग पर खाना बनाकर उसे पूरे परिवार के साथ खाते थे. यही वजह है कि आज भी गांवों में जब यह ‘लिट्टी का बाप’ तैयार होती है तो वह एक छोटे त्योहार जैसा माहौल बना देती है.
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